Saturday, December 15, 2012

खुद को भुला रहा हूँ मै !


है शाम , पर धुप कितनी तेज ,  हवाएं तीछन
की रात का चाँद याद आता है !
है मौसम बदला  सा , तुम बदले से ,
पर सामने समय का ठहराव नज़र आता है !

 है प्यास मेरी बड़ी और बढी    ,
फासलें है हीं , मगर फ़रेब-ए-नज़र दूरियां घटी !
खुद को भुला सा, सामने मेरी तमनाएं
चित्कारियां करती हुई मरी और चली !

 कंठ रोके , सांस तोड़े ,
स्वयं से झुके, स्वयं से रुके 
पर खुद को खुद से छुपा रहा हूँ मै !
जानता हूँ की मिथ्य है ये ,
पर खुद को भुला रहा हूँ मै !